‘रेप पीड़िता को आरोपी मत समझिए’, दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को लगाई कड़ी फटकार…

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दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए ट्रायल कोर्ट के रवैये पर सख्त नाराजगी जताई है. हाई कोर्ट ने कहा कि नाबालिग रेप पीड़िता को अदालत में पेश होने के लिए मजबूर करना न्यायिक असंवेदनशीलता का उदाहरण है. कोर्ट को चाहिए कि वह इंसाफ के साथ-साथ इंसानियत का भी पालन करें.

जस्टिस गिरीश कथपालिया की सिंगल बेंच ने कहा, “यौन हिंसा झेल चुकी एक बच्ची को बार-बार कोर्ट में बुलाना उसकी तकलीफों को बढ़ाना है. पीड़िता को आरोपी की तरह नहीं देखा जा सकता है. ट्रायल कोर्ट का आदेश न केवल कानून की भावना के खिलाफ था, बल्कि यह पीड़िता के मानसिक स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ था.”

क्या है पूरा मामला?
दरअसल, यह मामला दो आरोपियों से जुड़ा है, जिन पर आरोप है कि उन्होंने एक नाबालिग बच्ची को नशीला पदार्थ देकर उसके साथ गैंगरेप किया. घटना के बाद से पीड़िता मानसिक और शारीरिक रूप से बेहद कमजोर है. 18 मार्च को ट्रायल कोर्ट में सुनवाई के दौरान पीड़िता के वकील ने बताया कि उसकी तबीयत खराब है और वह अदालत में पेश नहीं हो सकती. इसके बावजूद ट्रायल कोर्ट ने उसकी बीमारी की जांच के लिए पुलिस को भेजने का आदेश दे दिया.

हाई कोर्ट ने इस पर नाराजगी जताते हुए कहा क्या पीड़िता को बार-बार अपनी पीड़ा साबित करनी होगी. क्या उसके कहे पर भरोसा नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने पूछा कि आखिर पीड़िता की बीमारी की जांच के लिए एक पुरुष कांस्टेबल को क्यों भेजा गया जबकि आदेश में एसएचओ या महिला जांच अधिकारी को भेजने की बात थी. इसे हाई कोर्ट ने बेहद आपत्तिजनक और संवेदनहीन करार दिया.

 

 

‘इंसाफ जल्द हो, लेकिन इज्जत के साथ’
हाई कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट पर भले ही केस को जल्द निपटाने का दबाव हो, लेकिन इंसाफ की जल्दी में पीड़िता की गरिमा और मानसिक स्थिति से समझौता नहीं किया जा सकता. फास्ट ट्रैक कोर्ट का मतलब है तेज न्याय, न कि पीड़िता को फिर से तकलीफ देना.

दिल्ली हाई कोर्ट 22 अप्रैल को अगली सुनवाई
इस मामले में अब अगली सुनवाई 22 अप्रैल को होगी. आरोपी पक्ष की ओर से वकील ने जमानत याचिका पर दलीलें पेश कीं, लेकिन हाई कोर्ट ने साफ कर दिया कि इस मामले में प्राथमिकता पीड़िता की सुरक्षा और मानसिक स्थिति है.

दिल्ली हाई कोर्ट ने क्या कहा?
पीड़िता को अपराधी की तरह कोर्ट में घसीटना, न्याय नहीं अन्याय है. एक नाबालिग के साथ संवेदनशीलता होनी चाहिए न कि कठोरता हो. तेजी से मुकदमा निपटाना सही है, लेकिन न्यायिक संवेदनशीलता भी उतनी ही जरूरी है. हाई कोर्ट का यह फैसला नजीर बन सकता है. इस आदेश को न्यायिक इतिहास में एक मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है. यह फैसला यौन हिंसा पीड़िताओं के साथ न्यायिक प्रक्रिया में सहानुभूति और गरिमा बनाए रखने की अनिवार्यता को रेखांकित करता है.

 

 

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